सत्यार्थ प्रकाश 173
(प्रश्न) ब्रह्म और जीव जुदे हैं वा एक?
(उत्तर) अलग-अलग हैं।
(प्रश्न) जो पृथक्-पृथक् हैं तो-
प्रज्ञानं ब्रह्म।।१।। अहं ब्रह्मास्मि।।२।। तत्त्वमसि।।३।।
अयमात्मा
ब्रह्म।।४।।
वेदों के इन महावाक्यों का अर्थ क्या है?
(उत्तर) ये वेदवाक्य ही नहीं हैं किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थों के वचन हैं और इन का नाम महावाक्य कहीं सत्य शास्त्रें में नहीं लिखा। अर्थात् ब्रह्म प्रकृष्ट ज्ञान-स्वरूप है। (अहम्) मैं (ब्रह्म) अर्थात् ब्रह्मस्थ (अस्मि) हूं। यहां तात्स्थ्योपाधि है; जैसे 'मञ्चाः क्रोशन्ति' मचान पुकारते हैं। मचान जड़ हैं, उनमें पुकारने का सामर्थ्य नहीं, इसलिये मञ्चस्थ मनुष्य पुकारते हैं। इसी प्रकार यहां भी जानना। कोई कहै कि ब्रह्मस्थ सब पदार्थ हैं; पुनः जीव को ब्रह्मस्थ कहने में क्या विशेष है? इस का उत्तर यह है कि सब पदार्थ ब्रह्मस्थ हैं परन्तु जैसा साधर्म्ययुक्त निकटस्थ जीव है वैसा अन्य नहीं। और जीव को ब्रह्म का ज्ञान और मुक्ति में वह ब्रह्म के साक्षात्सम्बन्ध में रहता है। इसलिये जीव को ब्रह्म के साथ तात्स्थ्य वा तत्सहचरितोपाधि अर्थात् ब्रह्म का सहचारी जीव है। इस से जीव और ब्रह्म एक नहीं। जैसे कोई किसी से कहै कि मैं और यह एक हैं अर्थात् अविरोधी हैं। वैसे जो जीव समाधिस्थ परमेश्वर में प्रेमबद्ध होकर निमग्न होता है वह कह सकता है कि मैं और ब्रह्म एक अर्थात् अविरोधी एक अवकाशस्थ हैं। जो जीव परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल अपने गुण, कर्म, स्वभाव करता है वही साधर्म्य से ब्रह्म के साथ एकता कह सकता है।
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