क्या पशु-दूध का सेवन भारतीय संस्कृति की देन है?

in #hindi6 years ago (edited)

विगत दिनों मैंने आपसे अपनी निम्न पोस्ट में दूध-उत्पादन से पशुओं के प्रति होने वाली जघन्य हिंसा के संबंध को उजागर करती अपनी पोस्ट प्रकाशित करने का वादा किया था।

अहम् सवाल: क्या कत्लखानों को प्रतिबंधित करने पर गौ-हत्या रूक सकती है?

मैं अभी तक आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार कर रहा हूँ। इस विषय को थोडा-सा और उजागर करने के लिए मैंने कुछ ही दिन पूर्व अपना निम्न वीडियो भी आपके समक्ष प्रस्तुत किया था:

दूध की पवित्रता का भ्रम, हमारा पशु-हिंसा में योगदान का बड़ा कारण है।

इससे पहले कि मैं इस विषय पर अपनी विस्तृत पोस्ट प्रकाशित करूँ, मैं आपसे कुछ और बातें साझा करना चाहता हूँ।

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कल ही मुझे मेरे एक मित्र ने एक सज्जन द्वारा उठाए गए निम्न सवाल और शंकाएं प्रेषित की, जिन पर मैं अपने विचार आपके साथ भी साझा करना चाहता हूँ।

पहले आप मुझे प्राप्त पत्र का मसौदा देखें:

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यह सारी बातें अन्य लोगों की ही तरह कई मिथ्या अवधारणाओं और भ्रामक सूचनाओं का शिकार होने का परिणाम है। इसके अलावा हम कई पुरानी परंपराओं को महिमामंडित कर अपने कुकृत्यों को न्यायोचित ठहराने का भरसक प्रयास करते हैं। हम कई बातों को जानबूझकर समझना नहीं चाहते क्योंकि समझ गए तो वो हमारी असुविधा का कारण बन सकती है, ऐसा हम सोचते हैं। अतः उन्हें अस्वीकार करने के लिए हम नाना प्रकार के कुतर्क करते हैं। सामान्यतः मानव स्वभाव ही ऐसा होता है, अतः मुझे इसमें कोई अचरज की बात नहीं लगती।

खैर, चुँकि मुझसे बिन्दुवार उत्तर माँगा गया है तो मैं उसे यहाँ देने का प्रयास करता हूँ:

सर्वप्रथम, भारत की मूल आत्मा क्या रही है और आपने उसे किन अर्थों में समझा है, इन दोनों बातों में जमीन-आसमान का अंतर है। कुछेक शास्त्रों का ज्ञान ले, लोग राम, कृष्ण बुद्ध और महावीर को पूर्णतः समझ लेने का दावा कर बैठते हैं! अज्ञानता का इससे बढ़कर कोई अन्य उदाहरण नहीं हो सकता।

१. पहली बात तो मानव शरीर को किसी जंतु-प्रोटीन या प्राणिज उत्पाद की आवश्यकता ही नहीं होती तो उसका समाधान ढूँढने की कोई ज़रुरत ही नहीं होनी चाहिए। दूसरे, पशु-जनित दूध अहिंसक उत्पाद नहीं है। प्रोटीन वनस्पतियों में भरपूर मात्रा में उपलब्ध होता है जहां से सभी जंतु अपना आहार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गृहण करते हैं। इसलिए, हम इसे सीधे वनस्पतियों से आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। वनस्पति आधारित आहार करने वाले लाखों लोग इसका जीता-जागता उदाहरण है कि किसी को प्रोटीन की कमी नहीं है।

२. दूध को धर्म-सम्मत आहार कहना हमारी नादानी है। न गीता में दूध को खाने योग्य कहा गया है, न महावीर ने दूध को पेय पदार्थ बताया है और न ही बुद्ध ने। उल्टे बुद्ध एवं महावीर ने दूध का प्रयोग न करने को कहा था।

३. अब आप अपने कृत्यों की स्वीकृति हेतु आधुनिक वैज्ञानिकों का सहारा लेने लग गए? तो आप इस तथ्य को भी समझ लें कि आधुनिक वैज्ञानिक अध्ययनों ने स्पष्ट कर दिया है कि पशु-जनित दूध हमारे स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक है और उत्तम स्वास्थ्य के लिए यह नितांत ही अनावश्यक है।

४. "पूजा" के पीछे सदा ही मानव का स्वार्थ निहित होता है। हर मानव किसी की पूजा से कुछ न कुछ हासिल करना चाहता है - या तो वैभव-विलास या उतम स्वास्थ्य या स्वर्ग या फिर मोक्ष! पूजा बिना प्रयोजन नहीं की जाती। जब गौ पूजी जाने लगी तो जाहिर था कि हम उससे कुछ हासिल करना चाहते थे। या यूँ कहे कि जो हम उससे छीनना चाहते थे, उस चोरी-डकैती को पूजा के पवित्र नाम की आड़ में छुपाना चाहते थे। ये बिलकुल वैसी ही बात थी जैसी कि बकरा या ऊँट को काटने से पहले उसे पूजा जाना। ये मानव की चालाकी और धूर्तता के अलावा और क्या हो सकता था?

५. इस बिंदु में आपने स्वयं ही उल्लेख कर दिया कि गौ-पूजा के पीछे मानव के कौन-कौन से स्वार्थ छिपे हुए थे। सोचो कि एक बैल मानव के लिए खेती क्यों करेगा जब उसे प्रकृति में स्वछंद विचरण करते हुए अपना भोजन सुलभ हो जाता था? हमने उससे बेगारी करवाने के लिए उसको पारिवारिक सदस्यता का तमगा दे दिया? क्यों उसे सूखा, अनुपयोगी भूसा-चारा खिलाने को दिया जाता है जबकि प्रकृति उसे हमेशा ताज़ी हरी दूब खिलाती थी? क्यों इस स्वाभिमानी पशु को मानव के रहमो-करम पर जीने को मजबूर किया गया? और दूध? किस अधिकार से छिना आपने? एक धूर्त मानव प्रजाति के अलावा क्या संपूर्ण प्रकृति में ऐसा कोई उदहारण है, जहाँ एक प्रजाति का जीव किसी अन्य प्रजाति के जीव का दूध पी जाता हो? ...और आप इसे "आदर्श"कहते हैं?!!!

६. ये कैसा तर्क है जनाब? बकरा, भैंस और पाड़ा कटने को मजबूर? क्या मजबूरी है उनकी? यदि मानव का स्वार्थ न हो तो क्या कोई काटेगा इनको? बताइए कि विवशता किसकी है? कोई भी प्राणी कटना नहीं चाहता, सभी जीना चाहते हैं। कहाँ गए आपके पारंपरिक धर्म शास्त्र? क्या ऐसा नहीं लिखा है वहाँ? "निरुपयोगी" या "उपयोगी" की श्रेणी में किसने विभाजित किया और क्यों? इस प्रकृति में कोई भी जीव अकारण नहीं है, निरुपयोगी नहीं है। और न ही कोई जीव मानव के उपयोग के लिए बना है। न ही कोई प्राणी मानव के एहसान का मोहताज है। मानव होता कौन है, किसी जीव को मान्यता देने या छिनने वाला? हर प्राणी एक स्वतंत्र जीव है और उसे इस धरती पर अपने गरिमापूर्ण जीवन को जीने का पूर्ण अधिकार है। मानव को किस भी जीव को पराधीन करने या उसके जीवन से खिलवाड़ करने का किंचित मात्र भी अधिकार नहीं है। किसी भी संवेदक जीव के स्वतंत्र एवं प्राकृतिक जीवन में हस्तक्षेप मानव की आसुरी प्रवृति का ही द्योतक है।

गरिमापूर्ण, गौरवमयी जीवन हर प्राणी का जन्मसिद्ध अधिकार है। इस दृष्टि से मानव समेत सभी जीव एक समान हैं। समकक्षता की कसौटी गाय नहीं, वरन् जीवन मात्र है। दूध में दोष होना या न होना एक अलग विवाद हो सकता है किंतु ये किसी के जीवन और मौत का आधार निश्चित नहीं कर सकता।

ये भी एक विडंबना ही है कि आपको गाय के अलावा शेष सभी प्राणियों के दूध में दोष दृष्टिगोचर होता है परंतु गाय पर आते ही आपकी उस दृष्टि का विलोप हो जाता है।

चर्मकार समुदाय एवं कत्लखाने

ये आपने एक असंबद्ध विषय उठाया है। चर्मकार समुदाय के अस्तित्व से कत्लखानों का कोई संबंध नहीं है। यदि आज चर्मकार वर्ग होता भी तो भी कत्लखाने बंद नहीं हो पाते। आप बहुत बड़ी गलतफहमी में हैं।

वैसे आपको ये भी बता दूं कि अनेक ग्रामीण इलाकों में चर्मकार समुदाय आज भी विद्यमान है और वो अपना कार्य पहले की ही भांति कर रहा है। छूआ-छूत की समस्या आज इतनी जटिल नहीं है जितनी कि कभी थी। मैं जितने चर्मकारों से मिला हूँ, वे सभी अपने समाज में अपना आदर और अस्तित्व पूर्ववत ही बनाये हुए हैं। वे अपने कार्य को हीन दृष्टि से नहीं देखते बल्कि उन्हें अपने कार्य पर गर्व हैं। वे चमड़ी उतार कर माँस, कंकाल आदि जब पशु-पक्षियों को समर्पित करते हैं तो वे इसे काफी बड़े पुण्य का कार्य मानते हैं। इस हेतु वे अपने पूर्वजों के भी आभारी हैं।

लेकिन एक अलग समस्या की चर्चा इस समुदाय के लोगों ने मुझसे अवश्य की। इनकी आधुनिक समाज से दो शिकायत है:

१. पहली ये कि आजकल प्राकृतिक रूप से मरने वाले मवेशी न के बराबर हो गए हैं, जिस वजह से कई लोग दूसरा व्यवसाय तलाशने को बाध्य हुए हैं।

२. गाँवों में भी लोग आज-कल नरम और चिकने ब्रांडेड चमड़े से बनी पादुकायें और परिधान पहनना पसंद करते हैं। अतः मोची इस मरे हुए प्राणी के चमड़े के बहुत कम दाम दे पाता है।

समस्या का कारण आप काफी-कुछ समझ गए होंगे। खाद्यान्न के अभाव में और लाभार्जन की व्यावसायिक मानसिकता के चलते दो फीसदी से भी कम मवेशी अपनी प्राकृतिक उम्र पूरी कर पाते हैं। शेष सभी को कत्लखानों में भेजा जाता है। चमड़े के लिए भेजे गए पशु तो ज्यादा से ज्यादा कुछ ही महीने इस दुनिया में जिंदा रह पाते हैं। दुधारू पशु भी पाँच से दस बर्ष की उम्र पूरी होने तक कत्लखाने पहुँचा दिए जाते हैं।

पशु जितनी कम उम्र में कत्ल किया जाता है, उससे प्राप्त चमड़ा उतना ही ज्यादा नरम और मुलायम होता है और उतने ही अधिक दामों में बिकता है।

गोधन और सोने की चिड़िया

ये भारतीय संस्कृति का दुर्भाग्य रहा है कि गौ जैसे जीवट और सजीव प्राणी को "धन" जैसी निर्जीव व निरर्थक वस्तु की उपाधि दे दी गई। किसी भी जीवित प्राणी का अपना खुद का जीवन अमूल्य होता है, उसे धन की किसी भी मात्रा से नहीं तोला जा सकता। गौ को "गोधन" से संबोधित करना जीवन-मात्र को अपमानित करना है। इसका कारण भी मानव का स्वार्थ रहा है। मानव ने उसे अपने लाभ की एक "वस्तु" समझ सदा से उसका उपयोग किया है। और इसके दम पर मानव सभ्यता अपनी समृद्धि का दंभ भरती है! गौ को क्या मिला? एक परतंत्र, तिरस्कृत बंधुआ जीवन? क्या यही समृद्धि की परिभाषा है?

फाह्यान जैसे माँसाहारी समाज से आये यात्री जब पहली बार शाकाहारी जीवन देखते हैं तो उनका अपने वृतांत में थोड़ी अतिशयोक्ति करना स्वाभाविक है। वर्ना ये तो सर्वविदित तथ्य है कि मादक पदार्थ हमारी सभ्यता में दीर्घावधि से प्रचलन में रहे हैं और राजा, मंत्री आदि शासक वर्ग के आखेट या शिकार पर जाने के अनेक पुख्ता प्रमाण आज भी उपलब्ध हैं।

बुद्धिजीवियों के तर्क भी निराले होते हैं! अनेक प्रयासों के उपरांत वैज्ञानिकों ने ट्रैक्टरों और पम्पों का आविष्कार कर बैलों पर हो रहे जुल्म को कम करने का प्रयास किया। लेकिन बुद्धिजीवी वर्ग इससे भी आहत हैं! इन लोगों को आगरा के ताजमहल या हिन्दूस्तान-तिब्बत सड़क जैसे उदाहरणों पर गर्व होगा। हाँ, मुझे भी इससे कोई आपत्ति नहीं है। गर्व करने लायक चीजों पर गर्व होना भी चाहिए। हिंदुस्तान-तिब्बत सड़क जैसा नायब उदाहरण आज भी हमारे पास और नहीं है। आज, बिना आधुनिक मशीनों के सिर्फ हस्त-औजारों की सहायता से ऐसा निर्माण अकल्पनीय लगता है। क्या इसका अर्थ ये लगाया जाए कि आज भी यदि ऐसी सड़क का निर्माण कराया जाए तो बिना किसी आधुनिक उपकरण की सहायता से किया जाये ताकि मानव को काम मिल सके? (हालाँकि मैं इस बात से वाकिफ हूँ कि वहाँ काम करने वाले मजदूरों को कोई पगार नहीं दी गई थी, लेकिन मैं सिर्फ एक उदहारण दे रहा हूँ)। क्या आपको इस बात का गुमान भी है कि उस परियोजना में कितने मजदूरों की जान गई थी?

महात्मा गाँधी, चित्रभानु, श्रीमती प्रमोदा एवं श्रीमती मेनका गाँधी

उपरोक्त दिग्गज व्यक्तित्व के वक्तव्य, सन्दर्भ एवं उदाहरणों का यहाँ बहुतायत में प्रयोग किया गया है। अतः मैं अधिक विस्तार में नहीं जाऊंगा। सिर्फ इतना ही कहूँगा कि इन व्यक्तियों के कथनों, पुस्तकों और जीवन-शैली का तनिक गहराई से अध्ययन करें। ये सभी गौ-दूध के उपभोग के पूर्ण विरोध में थे (और हैं)।ऐसा इन लोगों ने क्यों किया, आप स्वयं इसे गहराई से समझे, सिर्फ इनके कुछेक आलेखों को पढ़ कर अपने को सर्वज्ञानी कहलवाने से बचें।

गाँधी जी के दूध पर विचार आप उनके 1912 के बाद के जीवनकाल से पढना।

बिंदु ६ और ८ में जहां आप गौ-रक्षा के सूक्ष्म-अध्यात्मिक अर्थ की बात करते हैं वहां आप अपनी ही पूर्व में कही बात के विपरीत विचार रख रहे हैं (दूसरे पशुओं को गाय के समकक्ष मान्यता नहीं देने के बाबत)।

दूध, वीगनवाद एवं निरवद्याचार

  • सभी लोगों के पशु-उत्पादों का उपभोग बंद कर देने पर कत्लखानों की आवश्यकता खत्म हो जाएगी, यह एक दम तार्किक एवं व्यवहारिक बात है। आप इसे अव्यवहारिक क्यों समझ रहे हैं इस बारे में आपने कोई ठोस बात नहीं रखी है।

  • माफ़ कीजिए, अहिंसा को वैज्ञानिक और अवैज्ञानिक श्रेणी में विभाजित करने वाले आप मुझे प्रथम शख्स मिले हैं। कृपया इसे विस्तार से समझायें, मैं इसे समझ नहीं पाया।

१. ये आपकी व्यक्तिगत एवं निराशावादी मान्यता है कि भारत में दूध और दुग्ध उत्पादों को मूल जीवन-शैली से अलग नहीं किया जा सकता। कृपया अपना नजरिया अधिक सकारात्मक रखने की कृपा करें!

"क्रूरता-मुक्त दूध" जैसी कोई चीज़ अस्तित्व में नहीं है। बिना क्रूरता के किसी पशु का दूध हासिल नहीं किया जा सकता। भारतीय संस्कृति का सहारा लेकर आप क्रूरता का मनगढ़ंत पैमाना नहीं बना सकते।

  • अकारण ही किसी भी मासूम पशु को बंधी बनाना क्रूरता है।
  • पशु की नासिका के अति-संवेदनशील अग्र भाग में छिद्र करना क्रूरता है।
  • उसमें रस्सी पिरो कर पशु पर अपना नियंत्रण करना क्रूरता है।
  • गाय को किसी भी सांड के साथ सहज सहवास न करने देना क्रूरता है।
  • सांड की नसबंदी कर बैल बनाना क्रूरता है।
  • उसके सिंग को कटवाना क्रूरता है।
  • पशु को अपने स्वयं के भोजन का चुनाव करने की छूट न देना क्रूरता है।
  • गाय को पालक द्वाराअपनी इच्छानुसार तय समय और तय नस्ल के सांड या उसके वीर्य से गर्भवती करना क्रूरता है।
  • बछड़े को अपनी माँ के पर्याप्त दूध से वंचित करना क्रूरता है।
  • कितना दूध उसके लिए पर्याप्त है, इसका आकलन मानव द्वारा करना क्रूरता है।
  • गाय को बांटा आदि खिला कर, अधिक दूध देने के लिए बाध्य करना क्रूरता है।
  • गाय के निजी जननांगों और थनों को छूना एवं मसोसना क्रूरता है।
  • बछड़े को माँ से दूर बांधना क्रूरता है।
  • गायों को सांडों से अलग बाड़े में रखना क्रूरता है।

यह सूची बहुत लंबी है। लेकिन फिलहाल मैं इसे यहीं विराम देता हूँ।

किस भारतीय संस्कृति की बात करते हैं आप? क्रूरता और हिंसा को सहारा देने के लिए आप भारतीय संस्कृति को कलुषित करने का कुप्रयास न करें तो बेहतर रहेगा। क्या दूसरों को भारतीय संस्कृति और जीवन-शैली का अध्ययन करने की हिदायत देने से पूर्व आपने इसका गहराई से अध्ययन किया? बूरा मत मानियेगा, यदि आप थोड़ा गहराई से अध्ययन करेंगे तो अपनी उथली विचारधारा से उभरने में बहुत मदद मिलेगी।

  1. सभी की सहमती लेने के लिए अहिंसा के सिद्धांतों से समझौता नहीं किया जा सकता। ऐसे तो मूल आंदोलन ही बेपटरी हो जायेगा। अपने व्यक्तित्व में बदलाव के लिए आपको ही अपने आदर्श, चरित्र और अहिंसा के सिद्धांतों का परिशोधन करना होगा। दूसरों को निम्नतर स्तर पर खींचने की चेष्टा करने की बजाय अपने नैतिकता के स्तर को ऊँचा उठाना श्रेयस्कर होगा।

३. समस्या यह है कि आपको दूध में अन्तर्निहित क्रूरता और हिंसा का ज्ञान ही नहीं है, इसलिए आप इतनी बेसिर-पैर की बात कर रहे हैं। क्या आपने कभी यह जानने का प्रयास किया कि निरवद्य लोग दूध के उपभोग पर अधिक चिंता क्यों दिखाते हैं? आप के पत्र में प्रश्न कम और सलाह ज्यादा है। मुझे ऐसा कोई प्रश्न ही नज़र नहीं आया जिसके उत्तर में मैं आपको इस समस्या को गहराई से समझा सकूं। पूरे पत्र में आप समझने के स्थान पर समझाने पर अधिक केन्द्रित हैं। आप इस पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं कि वीगन लोगों को भारतीय संस्कृति का कोई गुमान ही नहीं है।

यदि शाकाहारी शक्तियां दूध के उपभोग का प्रबल समर्थन करती है तो ऐसी शक्तियों को कमज़ोर करना ही होगा। आप शायद महात्मा गाँधी के इस कथन से अनभिज्ञ हैं कि जब तक हिन्दू अपनी जीवन-शैली नहीं सुधारेंगे और गौ-रक्षा को गंभीरता से नहीं लेंगे, तब तक आप यह उम्मीद नहीं कर सकते कि मुस्लमान, इसाई, सिख, यहूदी और पारसी माँस-भक्षण छोड़ेंगे। और यह बात भी समझ लें कि गौ-दूध का उपभोग करते हुए कभी भी गौ-रक्षा नहीं हो सकती, सिर्फ गौ के साथ धोखेबाजी ही हो सकती है।

अभिनव कार्य योजना, शाकाहारी दूध और घर-घर गौशाला

अत्यंत दुःख के साथ मुझे यह कहना पड़ रहा है कि आपकी अभिनव कार्य योजना की आधारशिला ही गलत है। जैसा कि मैं पहले भी कह चूका हूँ कि निर्दोष दूध जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं है, आप चाहे अपने को लाख समझा लें। इसमें आश्चर्य नहीं कि जो भी व्यक्ति अपनी आदतों में परिवर्तन करने से घबराता है, वो अपनी आदतों को जायज ठहराने की उक्ति सोचता रहता हैं। शराब पीने वाला उसे सोमरस कह देता है या भांग को शिव जी की बूटी कह कर सेवन कर लेता है। शाकाहारी अंडा और क्रूरता-मुक्त माँस जैसे लेबल बाजार में क्यों आये, इस पर भी तनिक विचार कर लेना। अहिंसा सिल्क और अहिंसा मिल्क भी बाजार में मिलते हैं। आप निर्दोष या शाकाहारी दूध ले आइये। लेकिन मुझे एक बात बिल्कुल स्पष्ट है कि ये सभी क्रूरता और हिंसा को छुपाने के लिए नए डिज़ाइन के सुंदर नकाब हैं!

दूसरे, आपकी "घर-घर गौशाला योजना", "पूजा, पुण्य और दान" आदि योजनायें इस पूंजीवादी व्यवस्था के अर्थ-तंत्र एवं आर्थिक प्रलोभन के सिद्धांतों के अनुकुल नहीं है, अतः वृहत स्तर पर अव्यवहारिक है। लेकिन मैं यहाँ अधिक विस्तार में नहीं जाऊंगा क्योंकि जब योजना की आधारशिला ही अनुचित हो तो फिर आप आगे कुछ भी करें, ईमारत ठीक नहीं बन पायेगी!

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कुछ ज्वलंत सवाल


चुँकि ये सज्जन कुछ समझाने का प्रयास कर रहे हैं, मैं इन सज्जन से निम्न प्रश्नों के उत्त्तर का आकांक्षी हूँ:

  • जब बिना किसी पशु-दूध के सेवन के पूर्णतः सेहतमंद जीवन संभव है तो पशु-दूध के उपभोग का इतना आग्रह क्यों?
  • दुग्ध-उद्योग के कारण मवेशियों की लगातार बढ़ती जनसँख्या का क्या किया जा सकता है, जब हमारे पास आज मौजूद मवेशियों को पर्याप्त भोजन और स्थान उपलब्ध करवाने के लिए भी समुचित संसाधनों का अभाव है?
  • सनद रहें कि हालिया हमारे देश में तीस करोड़ मवेशी हैं और इनमें से सिर्फ दो-तिहाई पशुओं को ही भोजन उपलब्ध करवाने लायक जमीन अथवा संसाधन है। लेकिन दूध एवं दुग्ध उत्पादों की मांग अगले पाँच वर्षों में २५% से भी अधिक बढ़ने की संभावना है। इसकी आपूर्ति आपकी योजना कैसे करेगी?
  • इतने पशुओं से उत्सर्जित होने वाली ग्रीन हॉउस गैसों से हमें कैसे निजात मिलेगी?
  • पशु-पालन उद्योग के कारण हो रही मीठे पानी की बेतहाशा खपत से मंडरा रहे गहरे जल-संकट का क्या समाधान पेश किया जा रहा है आपकी अभिनव कार्य योजना के तहत?

मुझे आपकी व्यवहारिक कार्य-योजना का इंतज़ार रहेगा और साथ ही वीगनवाद को अव्यवहारिक सिद्ध करने के लिए तथ्यात्मक जानकारी का।

साभार!

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  • पूर्व में चर्चित एक्वेरियमों को हतोत्साहित करने हेतु बनाई जा रही "जल-परी क्यों धरी?" नामक पुस्तिका छपकर तैयार हो चुकी है। यदि आपमें से कोई भी अपने शहर में इस विषय पर जागरूकता फैलाना चाहता हो तो इस पुस्तिका के लिए मुझसे या @chetanpadliya से संपर्क कर सकते हैं। मैं इसी नाम से Steem.Chat और Discord पर भी हूँ।
  • दूध और कत्लखाने के बीच गहरे संबंध को उजागर करने वाली पोस्ट मैं शीघ्र ही करूँगा। तब तक आपके इस विषय पर सवालों और शंकाओं का स्वागत हैं।
  • Sorry to English readers, I ain't publishing an English version for this post. Please help yourself with Google Translator or similar tools. However, I'll try to post the English version for my upcoming post related to dairy & slaughterhouses for English as well as Hinglish readers.
  • Please note that I regularly insititue a small bounty for comments to my posts every now and then. Most of the times I don't use steem-bounty tag and set up the bounty on 6th or 7th day.
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