श्रीमद्भागवत गीता { ज्ञान }
फोटो साभार मद्भगवत गीता फेसबुक पेज।
श्रीमद्भगवद्गीता की पृष्ठभूमि महाभारत का युद्ध है। जिस प्रकार एक सामान्य मनुष्य अपने जीवन की समस्याओं में उलझकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है और उसके पश्चात जीवन के समरांगण से पलायन करने का मन बना लेता है उसी प्रकार अर्जुन जो महाभारत का महानायक है अपने सामने आने वाली समस्याओं से भयभीत होकर जीवन और क्षत्रिय धर्म से निराश हो गया है, अर्जुन की तरह ही हम सभी कभी-कभी अनिश्चय की स्थिति में या तो हताश हो जाते हैं और या फिर अपनी समस्याओं से उद्विग्न होकर कर्तव्य विमुख हो जाते हैं। ऐसी स्तिथि में कर्तव्य का पालन वही व्यक्ति कर पाता हैं, जो कर्म के गूढ़ रहष्य का ज्ञान रखता हो। कर्म के रहष्य का जानकर पुरुष स्थिर चित्त और धैर्यवान होता हैं। किस कर्म को करने से क्या परिणाम प्राप्त होंगे, इसका वो सहज ही अनुमान लगाने में समर्थ होता हैं।
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कर्म के गूढ़ रहष्यो की सरल व्याख्या की हैं। आइये आज हम ये महत्वपूर्ण रहष्यो को जान ले।
जब अर्जुन ने युद्ध करने से मना कर दिया तो भगवान श्री कृष्ण ने कर्म की अनिवार्यता का उपदेश दिया और ज्ञान को श्रेष्ठ बताया। तब अर्जुन ने कहा ज्ञान श्रेष्ठ हैं, तो मुझे युद्ध जैसे भयंकर कर्म करने को क्यों कहते हो। तब श्री कृष्ण ने कहा --
कर्म करना मनुष्य का नैसर्गिक गुण हैं। बिना कर्म किये न तो मनुष्य रह पता हैं और न ही उसका निर्वहन सम्भव हैं।
इसको हम इस प्रकार समझ सकते हैं, जैसे ह्रदय का धड़कना, रक्त का संचार, श्वसन क्रिया आदि हमारे बिना चाहे होते रहते हैं, वैसे ही हमारी बुद्धि इन्द्रियों को कर्म करने के लिए प्रेरित करती हैं। अर्थात कर्म तो होंगे ही।
यदि हम जबरदस्ती इन्द्रियों को कर्म करने से रोकना चाहेंगे तो हमारा मन किये जाने वाले कर्मो का चिंतन करेगा और उनसे प्राप्त होने वाले सुख की कल्पना करेगा। तो वो मनसा कर्म की श्रेणी के कर्म तो हो ही जायेंगे।
इन्द्रियों को मन के नियन्त्र से मुक्त कर के, शरीर के निर्वहन मात्र के लिए इन्द्रियों को बरतते हुए , फल की इच्छा न करते हुए किये गए कर्मो का ये शरीर कर्ता होते हुए भी दोषो का भागी नहीं होता।
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आपका-- indianculture1
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