गीता-सार

in #philosophy6 years ago (edited)



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कर्म - काम= कर्मयोग = धर्म


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आपकी राय में धर्म क्या है?
आप निष्काम कर्म के सिद्धांत से क्या समझते हैं?:

  • क्या लक्ष्य निर्धारित कर कार्य-योजना बनाना अधर्म है?
  • क्या योजना आयोग, पंचवर्षीय योजना अथवा आर्थिक विकास का लक्ष्य रख बजट आदि बनाना अधर्म है?
  • क्या जीवन का कोई उद्देश्य वांछनीय है?
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कर्म का सिद्धांत एक वास्तविकता है, मैंने इसे जीता है और मैं इसकी निश्चितता दे सकता हूं। हम जो कुछ भी करते हैं उसका परिणाम होता है

कर्म-सिद्धांत को जीतने से आपका क्या तात्पर्य है? कृपया इस पर अधिक प्रकाश डालने की कृपा करें।

प्राणी मात्र के भले के लिए किया जाने वाला कार्य मेरी राय में धर्म हैं।
बिना फल की इच्छा से किया जाने वाला कर्म निष्काम कर्म की श्रेणी में आता हैं। मेरे द्वारा होने वाला प्रत्येक कर्म ईश्वर की प्रेरणा से मेरे माध्यम से हो रहा हैं। वैसे ही हैं, जैसे ईश्वर करवाना चाह रहा हैं। और उसका परिणाम भी वही निकलेगा जैसा ईश्वर चाहता हैं। मै कर्ता हूँ , न उस कर्म से प्राप्त होने वाले फल का जिम्मेदार। इस प्रकार निष्काम भाव से किया जाने वाला कर्म निष्काम कर्म हैं। इस पर अपनी अमूल्य राय जरूर लिखे।

आपने निष्काम कर्म की एकदम सटीक व्याख्या कर दी है। वह जो स्वतः ही प्रस्फुटित हो जाए ...जैसे कि फूल खिल जाता है और फिर झर जाता है; सूर्य उदित होता है और फिर अस्त भी। वृक्षों का फलना, नदियों और हवाओं का बहना, सागर में लहरों का उठना-गिरना आदि अनेक प्राकृतिक हलचलें या अस्तित्व निष्काम कर्म के प्रेरक हैं।

परंतु प्राणी मात्र के भले के लिए किया जाने वाला कृत्य मुझे वस्तुतः निष्काम कर्म की परिणिति लगता है। मेरा मतलब है कि यदि हमारा चित्त स्थिर है और हम आनंदित हैं तो हमसे अपने आप ही प्राणी-मात्र का भला हो जाता है, हमें वो करना नहीं पड़ता। और यदि वह हमसे स्वतः नहीं घटित हो रहा है तो फिर वो भी निष्काम नहीं है।

बिल्कुल सही फ़रमाया आपने। ऐसा भी नही हैं, कि ये सम्भव नही हैं, इसको सम्भव करने के उपाय भी हमारे ऋषि मुनियों ने हमारे ग्रन्थों में बताए हैं।
गीता का मूल सार भी यही हैं, कर्म करते रहो, फल की इच्छा मत करो।
" ये भी कटु सत्य हैं, कि कर्म करने को प्रेरित करने वाले ने कर्म का कारण व कर्मफल पहले से निर्धारित कर रखा हैं।"

बहुत आनन्द देने वाली चर्चा के लिए आभार।

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लक्षय बिना तो धर्म का पालन भी नहीं किया जा सकता है। धर्म के पालन में भी हम ये देखते हैं कि सही क्या है और गलत क्या। अतः लक्ष्य निर्धारित कर कार्य योजना बनाना अधर्म नहीं है।
किसी भी तरह की योजना बनाना अधर्म नहीं है। धर्म-अधर्म तो अलग ही चीज़ है। जिससे किसी का नुकसान हो या जो मानव का अहित करे वो अधर्म है चाहे वो योजना बनाकर करे या बिना योजना बनाए।
जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य तो सत्य का दर्शन करना है। सत्य ज्ञान से पाया जा सकता है। ये जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य है।

लेकिन आप उद्देश्य की कामना से कोई कार्य करते हो तो फिर वो काम निष्काम नहीं हो सकता।

शायद सही और गलत देखना भी निष्काम संभव नहीं है। क्योंकि जब कोई कामना ही नहीं है तो फिर सही और गलत का निर्णय किस लिए? पर यहाँ थोड़ा विरोध प्रकट हो सकता है जब हम ये देखते हैं कि श्रीकृष्ण अर्जुन को युद्ध करने को "सही" बता रहे हैं।

निष्काम भाव से जो स्वतः घटित होवे उसे ही सही समझना चाहिए। और गीता में श्रीकृष्ण जो भी अर्जुन को बोल रहे हैं वो भी निष्काम ही है।

जिससे किसी का नुकसान हो या जो मानव का अहित करे वो अधर्म है चाहे वो योजना बनाकर करे या बिना योजना बनाए।

यह बड़ी खूबसूरत बात है। लेकिन मेरी समझ से किसी उद्देश्य की "प्राप्ति" के लिए योजना बनाना निष्काम नहीं है परंतु उद्देश्य की पूर्ती के लिए निष्काम योजना बनाई जा सकती है। लेकिन उस योजना को क्रियांवित करने के लिए कटिबद्ध होने से आपकी स्वतंत्रता का हनन नहीं होना चाहिए। दूसरे, किसी अन्य को पहुँच रहे नुकसान की चिंता करने से अधिक महत्वपूर्ण अपने को हो रहे नुकसान की ओर ध्यान देना है। क्योंकि आप अपना नुकसान किये बिना कभी दूसरों का नुकसान नहीं कर सकते।

उद्देश्य बिना तो कुछ भी नहीं किया जा सकता है। जब हम किसी की भलाई की कामना भी करते हैं तो उसमें उद्देश्य ही होता है। निष्काम का अर्थ केवल इतना लगाया जा सकता है कि इसके पीछे हमारा कोई तुच्छ स्वार्थ नहीं है। स्वार्थ भी अगर भले के उद्देश्य से हो तो वह स्वार्थ नहीं कहलाएगा। जैसे कोई अधिक लाभ कमाना चाहे ताकि उससे वो लोगों का भला कर सके तो वह कमाई भी बुरी नहीं होगी, बशर्ते उसके लिए कोई गलत तरीका न आजमाया गया हो।

यही तो मैं समझना चाह रहा हूं। क्या सचमुच में, बिना कामना के भलाई नहीं की जा सकती?

भलाई या परोपकार यदि हमारी मनोस्थिति के परिणाम स्वरुप हो ...जब हमारा चित्त प्रफुल्लित हो, अंतःकरण आनंद से परिपूर्ण हो; तब हम जिस भी परिस्थिति में होंगे, हमारा कृत्य संपूर्ण अस्तित्व से तारतम्य में होगा। ऐसी मनोदशा में हमारे द्वारा जो भी घटित होगा वह जगत के भले के लिए ही होगा।

आज के युग में बिना लक्ष्य निर्धारित किये हम सबकुछ हासिल नही कर सकते जो हम करना चाहते है। और अगर बात की जाए अधर्म की तो मेरे अनुसार जो व्यक्ति छल-कपट से दूसरों को सताता है, उन्हें नुकसान पहुंचाता है , वह अधर्मी है।

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आप आखिर हासिल क्या करना चाहते हैं?

आपने कुछ कृत्यों को अधर्म की संज्ञा दी है वो व्यवहार पक्ष से बिलकुल ठीक है; लेकिन क्या धर्म मार्ग पर अग्रसर न होना अधर्म नहीं? तो उसे क्या कहना चाहिए? "धर्म-विमुखता" कहना थोड़ा उदासीन प्रतीत होता है; परंतु अगर ध्रुवीकरण की विचारधारा से देखें तो जो धर्म नहीं, वो अधर्म ही हुआ 😊

आपका पोस्ट तो अच्छा है क्या आपने भगवत गीता पढी है।ये भगवद गीता यथारूप पढिए आपके सभी सवाल के जवाब इसमे है @xyzashu 20180809_215533.png

क्षमा करें, मैं नहीं पढ़ पाउँगा। यदि आपने पढ़-समझ ली हो तो आप ही कुछ प्रकाश डालने की कृपा करें!

धन्यवाद!

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