जीव की गति ~ 3
प्रश्न ~ कर्मों की गति के निर्धारण का आधार क्या होना चाहिए ?
उत्तर ~ कर्मो की गति विलक्षण हैं। इसे समझ पाना आसान नही हैं। कौनसे कर्म सद्कर्म हैं और कौनसे कर्म अकर्म हैं, इसका निर्धारण बुद्धि के बल पर कर पाना कम से कम एक सामान्य मनुष्य के वश में तो नही हैं।
कर्मो के निर्धारण में बुद्धि का उपयोग न कर के विवेक का उपयोग किया जाय, तो सामान्यतया कुछ कुछ कर्मो की गति का अनुमान लगाया जा सकता हैं।
हम जो कर्म कर रहे हैं, उस कर्म के सम्पादन से किसी का अहित न हो, किसी को दुःख नही पहुँचे, कोई हिंसा न हो, वो कर्म सामान्यतया सद्कर्म ही होगा। सेवा भावना से अहंकार रहित होकर किया जाने वाला कर्म सद्कर्म ही होगा। प्राणी मात्र के भले को ध्यान में रखकर दया भाव से किया जाने वाला कर्म सद्कर्म ही होगा, इस प्रकार की अवधारणा कर्मो की गति के निर्धारण का बेहतर आधार हो सकती हैं।
स्वार्थ को ध्यान में रखकर किया जाने वाला कर्म निश्चित रूप से किसी न किसी का अहित करेगा ही, पर उदर पूर्ति के लिए निस्वार्थ भाव से किया गया कर्म, कर्मबन्धन में नही बांधता।
कर्म मन से, वचन से ओर शरीर से सम्पादित होते हैं। कई बार हम शरीर से सम्पादित होने वाले कर्मो का ध्यान तो रख लेते है, पर मन और वाणी से होने वाले कर्मो की तरफ ध्यान नही देते, जिसके कारण हम बिना किसी कारण से कर्मो के बंधन में बंध जाते हैं।
अर्थात मन मे किसी के प्रति बुरा सोचा, उसको अंजाम नही दिया, सिर्फ सोचा, और वो सोचना मन द्वारा हमें अकर्म के बंधन में बांध गया।
वचन से हमने अपनी वाणी द्वारा किसी को कष्ट पहुँचा दिया। गाली गलौज अथवा न बोलने योग्य शब्द बोलना, अहंकार वश किसी का अपमान करना, किसी को नीचा दिखाने का प्रयास करना आदि, हमें बिना किसी कारण के कर्म बन्धन में बांध जाते हैं।
जहां तक सम्भव हो इन सबसे बचने के प्रयास किये जाने में ही हित हैं।
फोटो साभार अज्ञात सोर्स।
विशेष ~ उपरोक्त विचारधारा स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज के ग्रंथ 'गीता दर्पण' से ली गई है। इस जानकारी के संबंध में आपकी कोई जिज्ञासा है, तो कृपया कमेंट में अपनी जिज्ञासा जरूर लिखें। अपवोट करना नहीं भूले।
आपका ~ indianculture1
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