विद्या ददाति विनयम

in #culture5 years ago

नमस्कार दोस्तों
आज हम शिक्षा और विद्या पर थोड़ी सी बातचीत करेंगे, इसे पढ कर अपनी अमुल्य राय से जरुर अवगत करायें।
आज से लगभग 40 या 50 वर्ष पीछे चले जाएं, भारत की साक्षरता दर लगभग 30 से 40 प्रतिशत थी। उस समय की सामाजिक व्यवस्था में हम पायेंगे कि यहाँ के लोग तीन चार पीढियों तक एक साथ एक ही संयुक्त परिवार में सहज रूप से रह लेती थे, एक ही रसोई में सभी का भोजन बनता था, परिवार का अनुभवी बुजुर्ग, परिवार का मुखिया हुआ करता था, और उस मुखिया की बात को बहुत आसानी से सभी को स्वीकार्य होती थी।
अब बात करते हैं आज की, भारत की साक्षरता दर लगभग 75 प्रतिशत से उपर हैं। समाज में देंखे तो संयुक्त परिवार ढूँढने पर भी नही मिलेंगे। गलती से मिल भी गये, तो वो परिवार कम शिक्षित हैं, अथवा उन्होने शिक्षा के साथ साथ विद्यार्जन भी किया हुआ हैं।
सहज सी बात है कि विद्यावान व्यक्ति भले ही शिक्षित नही हो, उसमें मानवीय संवेदनाओं को समझने की बहुत बेहतर समझ होती हैं, वो अर्थ या भौतिक वस्तुओं से ज्यादा मानवीय संवेदनाओं को को महत्व देगा, जबकि एक शिक्षित इन्सान संवेदना शुन्य होता हैं, यहाँ तक कि वह अपने माता पिता तक की संवेदनाओं को नही समझ पाता। जबकि भले ही कम पढा लिखा हो, पर जिसने विद्या समाज और परिवार के बुजुर्गो से प्राप्त की हो, वो विद्यावान ही होगा, उसके मन में आर्थिक फायदे से ज्यादा महत्वपूर्ण दया, मान, सम्मान, मर्यादाएं, अपनो से स्नेह,लगाव व सम्मान जैसी भावनाएँ होगी ही।
विद्या ददाति विनयम, न कि शिक्षा ददाति विनयम।
इस फर्क को जिस दिन समझने में हम सक्षम हो जाएंगे, उस दिन हम समाज को एक नयी दिशा देने में कामयाब हो जाएंगे।
आज का कल्चर हो गया हैं, बालक पढ्ने में थोड़ा होशियार है,तो उसको होस्टल में डाल दो, वहां वो शिक्षा तो ग्रहण कर लेता हैं, पर विद्या प्राप्त नही कर पाता। वहां वो डॉक्टर, इन्जीनियर अथवा और कुछ बन जायेगा। पैसा कमाने की मशीन बन जायेगा, पर वो किसके लिये डॉक्टर बना, ये नही जान पायेगा। सबसे पहले तो वो ये ही भुल जायेगा, कि उसको डॉक्टर बनाने वाले उसके माता पिता की भी उसको ले कर कुछ इच्छायें है।"मैने आज तक कोई बड़ा डॉक्टर नही देखा, जिसके माता पिता या दादा दादी उसके साथ रहते हो। मैने आज तक कोई डॉक्टर नही देखा, जो अपने घर के गांव, या उसके जन्मस्थल से आने वाले मरीजो के लिये कोई विशेष व्यवस्था की हुई हो। यदि अपवाद स्वरुप कोई हैं, तो पक्का उसके परिवार नें उसको अपने साथ जोड़े रखा हैं।" उसको ये पता नही होगा, कि उसका पहला कर्तव्य अपनी जेब भरना नही हैं, मरीजो की सेवा करना हैं।
कुछ ऐसा ही अन्य सभी व्यवसायिक क्षेत्र में, या अन्य किसी भी क्षेत्र में, अथवा विदेशो में जाकर सेटल हो जाने वालो के साथ होता हैं। इतना कट जाते हैं वो अपनी जड़ो से, "कि माँ मरकर 6 महीनो तक सूख गयी, पर बेटे को 6 महीनो में अपनी ही माँ की सुध लेने का समय नही मिला। उस माँ के लिये समय नही मिला, जिसकी बदौलत वो विदेश में जाकर बस गया। कास ! उस माँ ने उसे पैसा कमाने की मशीन बनाने की बजाय इन्सान बनाया होता, जो उसको भले ही झोपड़ी में रखता, पर अन्त समय में उसकी देखभाल करता।
सुप्रभात
आपका दिन मंगलमयी हो।

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