"Suryanmaskar" The priceless heritage of 'Bharatirashtra' Know the Indian tradition of Suryanamaskar

in #suryanmaskar6 years ago

सूर्यनमस्कार :‘भारतराष्ट्र’ की अमूल्य धरोह
जानिए सूर्यनमस्कार की भारतीय परंपरा को

सूर्य की ‘भरत’ संज्ञा होने के कारण इस देश के सूर्योपासक लोगों का देश ‘भारतवर्ष’ कहलाया।‘सूर्यनमस्कार’ के साथ भारतवासियों की राष्ट्रीय अस्मिता का इतिहास भी जुड़ा है।हमारे देश के तत्त्वद्रष्टा ऋषि मुनियों ने सूर्य के साथ सायुज्य रखते हुए सूर्य मंत्रों के विनियोग को भी योग की राष्ट्रवादी परंपराओं के साथ जोड़ दिया। सूर्य मंत्रों के उच्चारण से योगार्थी का सूर्य की बारह ऊर्जाओं से सायुज्य प्राप्त होता है। उसका तन-मन और बुद्धि निर्मल होती है तथा इन आसनों का अभ्यास करने से उसे आधि भौतिक, आधि दैविक तथा आध्यात्मिक तीनों प्रकार की ऊर्जाएं एक साथ प्राप्त होती हैं।इसलिए ‘सूर्यनमस्कार’ का मंत्रयोग ‘भारत राष्ट्र’ की राष्ट्रीय अमूल्य धरोहर है।

भारत मूलतः सूर्योपासकों का देश होने के कारण ‘भारत राष्ट्र’ की अवधारणा सूर्य के साथ जुड़ी हुई है। यजुर्वेद में सूर्य को ‘राष्ट्र’ भी कहा गया है तथा ‘राष्ट्रपति’ भी। वैदिक साहित्य में प्रजावर्ग का भरण पोषण करने के कारण सूर्य को ‘भरत’ कहा गया है। सूर्य की ‘भरत’ संज्ञा होने के कारण इस देश के सूर्योपासक लोगों का देश ‘भारतवर्ष’ कहलाया। इस प्रकार ‘सूर्यनमस्कार’ के साथ भारतवासियों की राष्ट्रीय अस्मिता का इतिहास भी जुड़ा है। यही कारण है कि हमारे देश के तत्त्वद्रष्टा ऋषि मुनियों ने सूर्य के साथ सायुज्य रखते हुए योग की राष्ट्रवादी परंपराओं को भी जोड़ा। सूर्य हमारा भरण पोषण ही नहीं करता बल्कि वह हमें अंधकार से प्रकाश की ओर तथा अज्ञान से ज्ञान की ओर भी प्रेरित करता है। इसलिए शास्त्रों में कहा गया है कि जो लोग सूर्यको प्रतिदिन नमस्कार करते हैं, उन्हें सहस्रों जन्म तक दरिद्रता प्राप्त नहीं होती-

“आदित्यस्य नमस्कारं ये कुर्वन्ति दिने दिने।
जन्मान्तरसहस्रेषु दारिद्र्यं नोपजायते ।।”

*‘सूर्य नमस्कार’ का इतिहास
जहां तक वर्तमान में प्रचलित ‘सूर्य नमस्कार’ आसन का संबंध है पातंजल योगसूत्र का यह हिस्सा नहीं है और न ही इस आसन का अभ्यास करते हुए सूर्य सम्बंधी मंत्रों का प्रयोग करने का विधान योगशास्त्र के प्राचीन ग्रन्थों में कहीं मिलता है। किंतु ‘तैत्तरीय आरण्यक’ में सूर्य नमस्कार से संबंधित चौदह मंत्र मिलते हैं उन्हीं में से पहले बारह मंत्रों के अंतिम भाग ‘सूर्य नमस्कार’ के बारह चरणों या आसनों में प्रयुक्त किया जाता है। इससे प्रतीत होता है कि सूर्योपासक योगसाधकों की एक स्वतंत्र योग परंपरा का वैदिक काल में ही उदय हो चुका था जिसका परंपरागत अवशेष यह ‘सूर्यनमस्कार’ नाम से प्रसिद्ध योग है।

वर्तमान ‘सूर्यनमस्कार’ के इतिहास के साथ महाराष्ट्र स्थित औंध के राजा भवन राव पन्त प्रतिनिधि का नाम विशेष रूप से जुड़ा है जिन्होंने इस आसन को सन् 1920 में प्रचारित किया तथा इस पर ‘द टैन प्वाइन्ट वे टू हैल्थ’ शीर्षक से 1938 में अंग्रेजी में एक लघु पुस्तिका भी लिखी। औंध के राजा ने ही अपने राज्य के स्कूली पाठ्यक्रम में योग की शिक्षा को अनिवार्य किया। तभी से अधिकांश हिन्दू संगठन ‘सूर्य नमस्कार’ को योग की शिक्षा का आवश्यक अंग मानने लगे हैं पर ‘सूर्य नमस्कार’ की यौगिक प्रक्रिया का शास्त्रीय रूप कैसा हो? इसके सम्बंध में भी तरह तरह के मतभेद दिखाई देते हैं। वर्तमान में ‘सूर्य नमस्कार’ की बारह यौगिक क्रियाओं के साथ सूर्यदेव सम्बंधी संस्कृत के उपर्युक्त ‘तैत्तरीय आरण्यक’ में आए वैदिक मंत्रों को भी जोड़ दिया गया है।

वर्त्तमान में यदि ‘सूर्य नमस्कार’ का सार्वजनिक रूप से योगार्थियों को प्रशिक्षण दिया जाता है तो वैदिक धर्म की मान्यताओं का भी सम्मान किया जाना चाहिए और इस आसन का अभ्यास केवल उन्हीं योगार्थियों को कराया जाना चाहिए जो संस्कृत भाषा के सही उच्चारण की क्षमता रखते हों और उन वैदिक मंत्रों का अर्थ भी जानते हों तभी ‘सूर्य नमस्कार’ की यौगिक प्रक्रिया का संपू्ण लाभ योगार्थियों को प्राप्त हो सकेगा।अन्यथा तो मंत्रों के अशुद्ध उच्चारण से अनर्थ फल भी झेलना पड़ सकता है।

*सूर्यनमस्कार’ के मंत्र
‘तैत्तरीय आरण्यक’ में सूर्यनमस्कार से संबंधित चौदह मंत्र मिलते हैं उन्हीं में से पहले बारह मंत्रों के अंतिम भाग ‘सूर्यनमस्कार’ के बारह चरणों या आसनों में प्रयुक्त किया जाता है। प्रत्येक बार किए जाने वाले इन सूर्य मंत्रो के उच्चारण से योगार्थी का सूर्य की बारह ऊर्जाओं से सायुज्य प्राप्त होता है। उसका तन मन और बुद्धि निर्मल होती है तथा इन आसनों के अभ्यास से उसे आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक तीनों प्रकार की ऊर्जाएं प्राप्त होती हैं। वे चौदह वैदिक सूर्य मंत्र निम्न हैं जिनमें से पहले बारह मंत्रों का उच्चारण ‘सूर्यनमस्कार’ के बारह चरणों का अभ्यास करते हुए किया जाता है -

ॐ मित्राय नमः, 2. ॐ रवये नमः, 3. ॐ सूर्याय नमः, 4.ॐ भानवे नमः, 5.ॐ खगाय नमः, 6. ॐ पूष्णे नमः,7. ॐ हिरण्यगर्भाय नमः, 8. ॐ मरीचये नमः, 9. ॐ आदित्याय नमः, 10.ॐ सवित्रे नमः, 11. ॐ अर्काय नमः, 12. ॐ भास्कराय नमः, 13. ॐमित्ररवि भ्यां नमः 14. ॐ सूर्यभानुभ्यां नमः

*‘सूर्यनमस्कार’से स्वास्थ्य संबंधी लाभ
सूर्यनमस्कार सर्वांग शारीरिक व्यायाम की अत्यंत वैज्ञानिक यौगिक प्रक्रिया है जिसके करने से शरीर के सभी संस्थान, रक्त संचरण, श्वास, पाचन, उत्सर्जन, नाड़ी तथा ग्रंथियों की क्रियाएं सशक्त होती हैं। यह शरीर के सभी अंगों, मांसपेशियों व नसों को क्रियाशील करता है तथा वात, पित्त तथा कफ को संतुलित करने में मदद करता है।

इस आसन का नियमित अभ्यास करने से पाचन सम्बन्धी समस्याओं जैसे अपच, कब्ज, बदहजमी, गैस, अफारा तथा भूख न लगना आदि बीमारियों से छुटकारा मिलता है। इससे शरीर की सभी महत्वपूर्ण ग्रंथियों, जैसे पिट्यूटरी, थायरॉइड, पैराथायरॉइड, एड्रिनल, लीवर, पैंक्रियाज, ओवरी आदि की क्रियाएं सुचालित संतुलित रहती हैं। सूर्य नमस्कार से विटामिन-डी मिलता है जिससे हड्डियां मजबूत होती हैं, आंखों की रोशनी बढती है,शरीर में खून का प्रवाह तेज होता है जिससे ब्लड प्रेशर की बीमारी में आराम मिलता है। इसके नियमित अभ्यास से मोटापे को दूर किया जा सकता है,बालों को सफेद होने झड़ने व रूसी से बचाया जा सकता है और तनाव, अवसाद, एंग्जायटी, चिड़चिड़ापन आदि मानसिक बीमारियों से भी छुटकारा मिल सकता है।

‘सूर्यनमस्कार’ योग के बारह आसनों का सूर्य के संवत्सर चक्र के बारह महीनों से भी घनिष्ठ संबंध है। योगाचार्य सद्गुरु ने ‘सूर्यनमस्कार’ योग के द्वादश आसनों के औचित्य को बताते हुए कहा है कि सूर्य के द्वादश चक्रों का जिस तरह चक्रात्मक विकास होता है उसी तरह ‘सूर्यनमस्कार’ के आसनों का अभ्यास करते हुए हम अपने शरीर को इस योग्य बना सकते हैं ताकि सूर्य के द्वादश चक्रों के साथ हमारे शरीर की अनुकूलता बनी रहे-

Surya Namaskar, which is known as “Sun Salutation” in English, is essentially about building a dimension within you where your physical cycles are in sync with the sun’s cycles, which run about twelve-and-a-quarter years. So it not by accident but by intent that it has been structured with twelve postures or twelve asanas in it. If your system is in a certain level of vibrancy and readiness, and in a good state of receptivity, then naturally your cycle will be in sync with the solar cycle.

*‘सूर्यनमस्कार’ आसन के बारह चरण
‘सूर्यनमस्कार’ को सर्वांग व्यायाम भी कहा जाता है। इसके लिये प्रातः काल सूर्योदय का समय सर्वोत्तम माना गया है। ‘सूर्यनमस्कार’ सदैव खुली हवादार जगह पर कम्बल का आसन बिछा खाली पेट अभ्यास करना चाहिये। इससे मन शान्त और प्रसन्न होता है। ‘सूर्यनमस्कार’ आसन के बारह चरण या स्थितियां हैं जिनका अभ्यास इस प्रकार किया जाता है-
1.प्रथम चरण - ‘स्थितप्रार्थनासन’
सूर्य-नमस्कार के प्रथम चरण की स्थिति ‘स्थितप्रार्थनासन’ की है।सावधान की मुद्रा में खडे हो जायें।अब दोनों हथेलियों को परस्पर जोडकर प्रणाम की मुद्रा में हृदय पर रख लें।दोनों हाथों की अँगुलियां परस्पर सटी हों और अंगूठा छाती से चिपका हुआ हो। इस स्थिति में आपकी कुहुनियां सामने की ऒर बाहर निकल आएंगी।अब आँखें बन्द कर दोनों हथेलियों का पारस्परिक दबाव बढाएँ । श्वास-प्रक्रिया निर्बाध चलने दें। इस समय 'ॐ मित्राय नमः' इस मन्त्र का जप करना चाहिए।

2.द्वितीय चरण - ‘हस्तोत्तानासन’ या ‘अर्द्धचन्द्रासन’
प्रथम चरण की स्थिति में जुडी हुई हथेलियों को खोलते हुए ऊपर की ओर तानें तथा श्वास भरते हुए कमर को पीछे की ऒर मोडें। गर्दन तथा रीढ की हड्डियों पर पडने वाले तनाव को महसूस करें। अपनी क्षमता के अनुसार ही पीछे झुकें और यथासाध्य ही कुम्भक करते हुए झुके रहें। इस समय 'ॐ रवये नमः' इस मन्त्र का जप करना चाहिए।

3.तृतीय चरण - ‘हस्तपादासन’ या ‘पादहस्तासन’
दूसरे चरण की स्थिति से सीधे होते हुए रेचक (निःश्वास) करें तथा उसी प्रवाह में सामने की ओर झुकते चले जाएं। दोनों हथेलियों को दोनों पंजों के पास जमीन पर जमा दें। घुटने सीधे रखें तथा मस्तक को घुटनों से चिपका दें यथाशक्ति बाह्य-कुम्भक करें। नव प्रशिक्षु धीरे-धीरे इस अभ्यास को करें और प्रारम्भ में केवल हथेलियों को जमीन से स्पर्श कराने की ही कोशिश करें। इस समय ‘ॐ सूर्याय नमः ' इस मन्त्र का जप करना चाहिए।

4.चतुर्थ चरण - ‘एकपादप्रसारणासन’
तीसरे चरण की स्थिति से भूमि पर दोनों हथेलियां जमाये हुए अपना दायां पांव पीछे की ओर ले जाएं। इस प्रयास में आपका बायां पांव आपकी छाती के नीचे घुटनों से मुड जाएगा,जिसे अपनी छाती से दबाते हुए गर्दन पीछे की ओर मोडकर ऊपर आसमान की ओर देखें। दायां घुटना जमीन पर सटा हुआ तथा पंजा अंगुलियों पर खडा होगा। ध्यान रखें, हथेलियां जमीन से उठने न पाएं।श्वास-प्रक्रिया सामान्य रूप से चलती रहे। इस समय 'ॐ भानवे नमः ' इस मन्त्र का जप करना चाहिए।
5.पंचम चरण - ‘भूधरासन’ या ‘दण्डासन’
‘एकपादप्रसारणासन’ की दशा से अपने बाएं पैर को भी पीछे ले जाएं और दाएं पैर के साथ मिला लें। हाथों को कन्धों तक सीधा रखें । इस स्थिति में आपका शरीर भूमि पर त्रिभुज का आकार बनाता है , जिसमें आपके हाथ लम्बवत् और शरीर कर्णवत् होते हैं।पूरा भार हथेलियों और पजों पर रहता है। श्वास-प्रक्रिया सामान्य रहनी चाहिये अथवा कुहुनियों को मोडकर पूरे शरीर को भूमि पर समानान्तर रखना चाहिये। यह ‘दण्डासन’ है। इस समय 'ॐ खगाय नमः' इस मन्त्र का जप करना चाहिए।

6.षष्ठ चरण - ‘साष्टाङ्ग प्रणिपात’
पंचम अवस्था यानि ‘भूधरासन’ से सांस छोडते हुए अपने शरीर को धीरे धीरे नीचे झुकाएं। कुहुनियां मुडकर बगलों में चिपक जानी चाहिये। दोनों पंजे, घुटने, छाती, हथेलियां तथा ठोढी जमीन पर एवं कमर तथा नितम्ब उपर उठा होना चाहिये। इस समय 'ॐ पूष्णे नमः ' इस मन्त्र का जप करना चाहिए।

7.सप्तम चरण - ‘सर्पासन’ या ‘भुजङ्गासन’
छठे चरण की स्थिति में थोडा सा परिवर्तन करते हुए नाभि से नीचे के भाग को भूमि पर लिटा कर तान दें। अब हाथों को सीधा करते हुए नाभि से उपरी हिस्से को ऊपर उठाएं। श्वास भरते हुए सामने देखें या गरदन पीछे मोडकर ऊपर आसमान की ऒर देखने की चेष्टा करें । ध्यान रखें, आपके हाथ पूरी तरह सीधे हों या यदि कुहुनी से मुडे हों तो कुहुनियां आपकी बगलों से चिपकी होनी चाहिए। इस समय ' ॐ हिरण्यगर्भाय नमः ' इस मन्त्र का जप करना चाहिए।
8.अष्टम चरण - ‘पर्वतासन’
सप्तम चरण की स्थिति से अपनी कमर और पीठ को ऊपर उठाएं दो पंजों और हथेलियों पर पूरा वजन डालकर नितम्बों को पर्वतशृङ्ग की भांति ऊपर उठा दें तथा गरदन को नीचे झुकाते हुए अपनी नाभि को देखें। इस समय ' ॐ मरीचये नम ' इस मन्त्र का जप करना चाहिए।

9.नवम चरण-‘एकपादप्रसारणासन’
(चतुर्थ चरण)
आठवें चरण की स्थिति से निकलते हुए अपना दायां पैर दोनों हाथों के बीच दाहिनी हथेली के पास लाकर जमा दें। कमर को नीचे दबाते हुए गरदन पीछे की ओर मोडकर आसमान की ओर देखें ।बायां घुटना जमीन पर टिका होना चाहिए। इस समय 'ॐ आदित्याय नमः' इस मन्त्र का जप करना चाहिए।

10.दशम चरण - ‘हस्तपादासन’ (तृतीय चरण)
नवम चरण की स्थिति के बाद अपने बाएं पैर को भी आगे दाहिने पैर के पास ले आएं । हथेलियाँ जमीन पर टिकी रहने दें । सांस बाहर निकालकर अपने मस्तक को घुटनों से सटा दें । ध्यान रखें, घुटने मुडें नहीं, भले ही आपका मस्तक उन्हें स्पर्श न करता हो। इस समय 'ॐ सवित्रे नमः' इस मन्त्र का जप करना चाहिए।

11.एकादश चरण -‘हस्तोत्तानासन’ या ‘अर्द्धचन्द्रासन’(द्वितीय चरण )
दशम चरण की स्थिति से श्वास भरते हुए सीधे खडे हों। दोनों हाथों की खुली हथेलियों को सिर के ऊपर ले जाते हुए पीछे की ऒर तान दें ।यथासम्भव कमर को भी पीछे की ओर मोडें। इस समय 'ॐ अर्काय नमः' इस मन्त्र का जप करना चाहिए।

12.द्वादश चरण -‘स्थितप्रार्थनासन’ ( प्रथम चरण )
ग्यारहवें चरण की स्थिति से हाथों को आगे लाते हुए सीधे हो जाएं । दोनों हाथों को नमस्कार की मुद्रा में वक्षःस्थल पर जोड लें । सभी उंगलियां परस्पर जुडी हुईं हों तथा अंगूठा छाती से सटा हुआ हो । कुहुनियों को बाहर की तरफ निकालते हुए दोनों हथेलियों पर पारस्परिक दबाव दें। इस समय 'ॐ भास्कराय नमः' इस मन्त्र का जप करना चाहिए।

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