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RE: गीता-सार

in #philosophy6 years ago

लक्षय बिना तो धर्म का पालन भी नहीं किया जा सकता है। धर्म के पालन में भी हम ये देखते हैं कि सही क्या है और गलत क्या। अतः लक्ष्य निर्धारित कर कार्य योजना बनाना अधर्म नहीं है।
किसी भी तरह की योजना बनाना अधर्म नहीं है। धर्म-अधर्म तो अलग ही चीज़ है। जिससे किसी का नुकसान हो या जो मानव का अहित करे वो अधर्म है चाहे वो योजना बनाकर करे या बिना योजना बनाए।
जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य तो सत्य का दर्शन करना है। सत्य ज्ञान से पाया जा सकता है। ये जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य है।

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लेकिन आप उद्देश्य की कामना से कोई कार्य करते हो तो फिर वो काम निष्काम नहीं हो सकता।

शायद सही और गलत देखना भी निष्काम संभव नहीं है। क्योंकि जब कोई कामना ही नहीं है तो फिर सही और गलत का निर्णय किस लिए? पर यहाँ थोड़ा विरोध प्रकट हो सकता है जब हम ये देखते हैं कि श्रीकृष्ण अर्जुन को युद्ध करने को "सही" बता रहे हैं।

निष्काम भाव से जो स्वतः घटित होवे उसे ही सही समझना चाहिए। और गीता में श्रीकृष्ण जो भी अर्जुन को बोल रहे हैं वो भी निष्काम ही है।

जिससे किसी का नुकसान हो या जो मानव का अहित करे वो अधर्म है चाहे वो योजना बनाकर करे या बिना योजना बनाए।

यह बड़ी खूबसूरत बात है। लेकिन मेरी समझ से किसी उद्देश्य की "प्राप्ति" के लिए योजना बनाना निष्काम नहीं है परंतु उद्देश्य की पूर्ती के लिए निष्काम योजना बनाई जा सकती है। लेकिन उस योजना को क्रियांवित करने के लिए कटिबद्ध होने से आपकी स्वतंत्रता का हनन नहीं होना चाहिए। दूसरे, किसी अन्य को पहुँच रहे नुकसान की चिंता करने से अधिक महत्वपूर्ण अपने को हो रहे नुकसान की ओर ध्यान देना है। क्योंकि आप अपना नुकसान किये बिना कभी दूसरों का नुकसान नहीं कर सकते।

उद्देश्य बिना तो कुछ भी नहीं किया जा सकता है। जब हम किसी की भलाई की कामना भी करते हैं तो उसमें उद्देश्य ही होता है। निष्काम का अर्थ केवल इतना लगाया जा सकता है कि इसके पीछे हमारा कोई तुच्छ स्वार्थ नहीं है। स्वार्थ भी अगर भले के उद्देश्य से हो तो वह स्वार्थ नहीं कहलाएगा। जैसे कोई अधिक लाभ कमाना चाहे ताकि उससे वो लोगों का भला कर सके तो वह कमाई भी बुरी नहीं होगी, बशर्ते उसके लिए कोई गलत तरीका न आजमाया गया हो।

यही तो मैं समझना चाह रहा हूं। क्या सचमुच में, बिना कामना के भलाई नहीं की जा सकती?

भलाई या परोपकार यदि हमारी मनोस्थिति के परिणाम स्वरुप हो ...जब हमारा चित्त प्रफुल्लित हो, अंतःकरण आनंद से परिपूर्ण हो; तब हम जिस भी परिस्थिति में होंगे, हमारा कृत्य संपूर्ण अस्तित्व से तारतम्य में होगा। ऐसी मनोदशा में हमारे द्वारा जो भी घटित होगा वह जगत के भले के लिए ही होगा।

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