प्राणी मात्र के भले के लिए किया जाने वाला कार्य मेरी राय में धर्म हैं।
बिना फल की इच्छा से किया जाने वाला कर्म निष्काम कर्म की श्रेणी में आता हैं। मेरे द्वारा होने वाला प्रत्येक कर्म ईश्वर की प्रेरणा से मेरे माध्यम से हो रहा हैं। वैसे ही हैं, जैसे ईश्वर करवाना चाह रहा हैं। और उसका परिणाम भी वही निकलेगा जैसा ईश्वर चाहता हैं। मै कर्ता हूँ , न उस कर्म से प्राप्त होने वाले फल का जिम्मेदार। इस प्रकार निष्काम भाव से किया जाने वाला कर्म निष्काम कर्म हैं। इस पर अपनी अमूल्य राय जरूर लिखे।
आपने निष्काम कर्म की एकदम सटीक व्याख्या कर दी है। वह जो स्वतः ही प्रस्फुटित हो जाए ...जैसे कि फूल खिल जाता है और फिर झर जाता है; सूर्य उदित होता है और फिर अस्त भी। वृक्षों का फलना, नदियों और हवाओं का बहना, सागर में लहरों का उठना-गिरना आदि अनेक प्राकृतिक हलचलें या अस्तित्व निष्काम कर्म के प्रेरक हैं।
परंतु प्राणी मात्र के भले के लिए किया जाने वाला कृत्य मुझे वस्तुतः निष्काम कर्म की परिणिति लगता है। मेरा मतलब है कि यदि हमारा चित्त स्थिर है और हम आनंदित हैं तो हमसे अपने आप ही प्राणी-मात्र का भला हो जाता है, हमें वो करना नहीं पड़ता। और यदि वह हमसे स्वतः नहीं घटित हो रहा है तो फिर वो भी निष्काम नहीं है।
बिल्कुल सही फ़रमाया आपने। ऐसा भी नही हैं, कि ये सम्भव नही हैं, इसको सम्भव करने के उपाय भी हमारे ऋषि मुनियों ने हमारे ग्रन्थों में बताए हैं।
गीता का मूल सार भी यही हैं, कर्म करते रहो, फल की इच्छा मत करो।
" ये भी कटु सत्य हैं, कि कर्म करने को प्रेरित करने वाले ने कर्म का कारण व कर्मफल पहले से निर्धारित कर रखा हैं।"
बहुत आनन्द देने वाली चर्चा के लिए आभार।
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